Thursday, November 13, 2008

काँटा कोई दामन थामेगा जब जब याद मेरी आएगी


सितारा बन गए तो इसका मतलब ये नहीं कि किसी भी चीज़ को आप हल्के से लें.ये बात उस्ताद मेहंदी हसन साहब से सीखी जा सकती है.अब देखिये उन्होंने ग़ज़ल की दुनिया में तमाम ऊँचाईयाँ पा लेने के बाद भी किसी दीगर गायकी को भी पूरी गंभीरता से लिया. चाहे वह फ़िल्म म्युज़िक ही क्यों न हो. आज सुरपेटी पर मेहंदी हसन साहब तशरीफ़ लाए हैं. फ़िल्मी तराना होने के बावजूद ख़ाँ साहब की गायकी का नूर पूरी तरह मौजूद है. जैसे हम संसारी अपने ज़ेवरों को दमका के रखते हैं वैसे ही मेहंदी हसन अपने सुर से एक एक शब्द को माँज कर चमका देते हैं.मज़ा ये कि उनके गले से निकली शायरों के कलाम अलग ही दमकते नज़र आते हैं. चलिये गीत सुन लें....


Sunday, October 5, 2008

उस्ताद राशिद ख़ाँ ; आओगे जब तुम साजना


भारतीय चित्रपट संगीत हमेशा से रचनाधर्मी रहा है। थोड़ा पीछे जाएँ तो याद आता है कि उस्ताद अमीर ख़ॉं , उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ॉं, पं. डी.वी. पलुस्कर, बेग़म अख़्तर, पं. भीमसेन जोशी, विदूषी निर्मला अरुण, विदूषी किशोरी अमोणकर, लक्ष्मी शंकर, आरती अंकलीकर, पं. अजय चक्रवर्ती, संजीव अभ्यंकर जैसे कई स्वनामधन्य कलाकारों की आवाज़ का ख़ूबसूरत इस्तेमाल फ़िल्म इण्डस्ट्री ने किया है। अभी हाल ही में प्रकाशित करीना कपूर और शाहिद कपूर की फ़िल्म "जब वी मेट' में उस्ताद राशिद ख़ॉं साहब की आवाज़ का जलवा बिखरा है। कम्पोजिशन बड़ी प्यारी बन पड़ी है और शानदार साउण्ड इ़फ़ैक्ट्स और वाद्यवृंद के साथ रामपुर- सहसवान के इस जश्मे-चिराग़ का जादू महसूस करने की चीज़ है। खरज में डूबी उस्ताद राशिद ख़ॉं की आवाज़ का प्रभाव कुछ ऐसा है पाश्चात्य वाद्यो के बीच में भी वह ख़ालिस और निर्दोष नज़र आता है। जिन आवाज़ों ने पिछले दस बरस में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का परचम लहराया है उसमें उस्ताद राशिद ख़ॉं का नाम सबसे आगे है। शास्त्रीय संगीत की रहनुमाई करने वाले इस स्वर साधक ने शब्दों के प्रभाव पर क़ायम रहते हुए इस बन्दिश को जिस तरह से निभाया है यह सुनकर ही महसूस किया जा सकता है। हॉं ग़ौर करने की बात यह भी है कि चित्रपट संगीत सीमित समय के अनुशासन का संगीत होता है लेकिन यहाँ भी राशिद ख़ॉं जैसे गुणी कलाकार अपना खेल दिखा ही जाते हैं।

मुलाहिज़ा फ़रमाईये....

Friday, October 3, 2008

वो नज़र नज़र से गले मिली तो बुझे चराग़ भी जल गए

सुरपेटी पर पहली बार तशरीफ़ ला रहे हैं उस्ताद मेहंदी हसन साहब.
न जाने कितनी बार लिख चुका हूँ कि ग़ज़ल की दुनिया का ये अज़ीम गुलूकार
शायरी की आन रखने के लिये ताज़िन्दगी अपने आप को झोंकता रहा है.
जब ख़ाँ साहब गा रहे होते हैं तब मूसीक़ी और शायरी को जैसे मनचाही परवाज़ मिल जाती है.
ग़ज़ल की दुनिया के नये कलाकारों के लिये ये ग़ज़ल और ख़ाँ साहब की गायकी सीखने वाली चीज़ है.
ज़रा ग़ौर कीजिये कि एक एक लफ़्ज़ के जो मानी है उस पर कैसे ठहरा जाता है जिससे शायर की
बात के साथ इंसाफ़ हो सके.ये हुनर सिर्फ़ गाने की उस्तादी से नहीं आता, इसके लिये कलाकार
के भीतर एक शायर की रूह होनी ज़रूरी है. बहुत से काम ज़िन्दगी में मैकेनिकल तरीक़े नही सधते जनाब.


अभी अभी रमज़ान का महीना विदा हुआ है और कई बार हम सब मेहंदी हसन मुरीद तहेदिल से दुआ करते रहे कि हमारे उस्तादजी की सेहत को तंदरुस्त बनाए..इंशाअल्ला.

नवरात्र के डाँडियों और गरबों की धूम में यदि आप घर पर ही संगीत की कोई शानदार की दावत लेना चाहते हैं तो ये ग़ज़ल आपको निश्चित ही सुकून देगी.सुनिये साहेबान !




ख़ाँ साहब की बहुत सारी ग़ज़लें सुख़नसाज़ पर भी सुनी जा सकती हैं.

Sunday, September 28, 2008

सूनी हुई मेरे देश की धरती;नहीं रहे महेन्द्र कपूर

एक संगीतप्रेमी मित्र ने जैसे ही एस.एम.एस.भेज कर गायक महेन्द्र कपूर के निधन का समाचार दिया, मन यादों के उन गलियारों की सैर करने लगा जब दो बार उनसे म.प्र.सरकार के प्रतिष्ठित लता पुरस्कार के आयोजन में व्यक्तिगत रूप से मिलने का सुअवसर मिला था. दूसरी बार तो वे इस पुरस्कार से सम्मानित होने पर इन्दौर तशरीफ़ लाए थे. सादा तबियत और बेहत विनम्र महेन्द्रजी से हुई मुलाक़ात की तफ़सील फ़िर कभी.आज तो उनके जाने की ख़बर सुन कर मन बहुत बोझिल सा हुआ जाता है.

जिस समय महेन्द्र कपूर परिदृश्य पर सक्रिय हुए तब रफ़ी साहब की गायकी का जलवा पूरे शबाब पर था. इसमें कोई शक नहीं कि वे सुरों की अनोखी परवाज़ के गुणी गायक थे लेकिन न जाने क्यों उन्हें रफ़ी साहब का अनुगामी ही माना जाता रहा. महेन्द्र कपूर ने कई गीत गाए लेकिन राष्ट्रीय गीतों के गायन में तो वे बेजोड़ रहे.उनके लाइव शोज़ का सिलसिला पूरे बरस चलता रहता था. फ़िल्म निकाह में एक तरह से संगीतकार रवि और महेन्द्र कपूर की धमाकेदार वापसी हुई थी.


सतरंग चूनर नवरंग पाग(ग़ैर फ़िल्मी गीत) और फ़िल्म नवरंग के गीत श्यामल श्यामल बरन मुझे बहुत पसंद है . वजह यह कि इन दो गीतों में महेन्द्र कपूर मुझे पूरी तरह से रफ़ी प्रभाव से मुक्त लगते है. उनका गाया एक गढ़वाली गीत भी विविध भारती के लोक-संगीत कार्यक्रम में बहुत बजता रहा है शायद यूनुस भाई कभी उसे रेडियोवाणी पर सुनवाएं.लता पुरस्कार के दौरान हुए एक जज़्बाती वाक़ये का ज़िक्र मैने कबाड़ख़ाना पर भाई अशोक पाण्डे द्वारा महेन्द्र कपूर पर लिखी गई पोस्ट पर कमेंट करते हुए भी किया है.

इसमें कोई शक नहीं महेन्द्र कपूर के.एल.सहगल,तलत महमूद,मो.रफ़ी,किशोर कुमार,मुकेश,मन्ना डे की ही बलन के श्रेष्ठतम गायक थे.उन्हें सुरपेटी की भावपूर्ण श्रध्दांजली.

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Sunday, September 14, 2008

कुमार गंधर्व गायकी के सुघड़ तेवर दिखाता मुकुल शिवपुत्र का स्वर

पं.मुकुल शिवपुत्र गान-शिरोमणि पं.कुमार गंधर्व के ज्येष्ठ चिरंजीव है.बचपन से ही उन्हें सुर की संगत घर आंगन में ही मिली. सूफ़ियाना तबियत के मुकुलजी ऐसे गायक हैं जिन्हें अपने आपको बताने और अपना गाना सुनाने की कोई उत्तेजना नहीं है. मन लग गया गाने को तो गाएंगे,आपके जी में आए जो कर लीजिये. जैसे एक कलाकार होता है फ़क्कड़ तासीर और बिना किसी उतावली वाला , बस वैसे ही हैं मुकुलजी. वे तो ऐसे कलाकार हैं कि बस अपने आप को सुनना चाहते हैं कि आज परमात्मा का क्या आदेश है मेरे गले के लिये.

राग तिलक-कामोद में आपने कोयलिया बोले अमुआ की डागरिया तो सुनी है,आज सुनिये इसी राग में पं.मुकुल शिवपुत्र का ये तसल्ली भरा गायन.छोटी छोटी गमक से सजा गायन और गले से ख़ूशबू बिखेरती ,लहकती तानें.कैसा अनुपम आलोक बिखेरता है ऐसा गायन.न ज़्यादा , न कम , बस वैसा जैसा गाना होना चाहिये एकदम वैसा.


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Friday, September 12, 2008

आशा भोंसले की आवाज़ में मियाँ की मल्हार में तराना

कहते हैं भोर बेला में जीवन के सारे मनोरथ पूरे होते हैं.आज दिन की शुरूआत कुछ जल्दी हो गई और हाथ आ गई यह अनमोल बंदिश. आशा भोंसले जन्मोत्सव पर ब्लॉगर-बिरादरी के ज़रिये कई नायाब चीज़े सुनने को मिलीं लेकिन आज जो मिला उससे अच्छी स्वरांजलि सदी की इस महान गायिका को और क्या हो सकती है.

दो वर्ष पूर्व जब आशा जी से एक लम्बा दूरभाष इंटरव्यू किया था तब उन्होंने इस एलबम के बारे में बताया था. आप को भी बता दूँ : मैहर घराने के चश्मे-चिराग़ उस्ताद अली अकबर ख़ाँ साहब लिगैसी नाम से एक एलबम तैयार करना चाह रहे थे.कई नामचीन फ़नकारों से बात चली पर बनी नहीं क्योंकि ख़ाँ साहब एक कम्पोज़र के रूप में अपनी बात कहलवाना चाहते थे. शास्त्रीय संगीत के कलाकारों से कोई बैठक हो तो अपने मन की हो ही नहीं पाए. आशा भोंसले का ख़याल आया ज़हन में. पहली मुलाक़ात में ही बात बन गई. आशाजी ने बताया मैं ठहरी पार्श्वगायिका , जो संगीतकार कहे उसी को फ़ॉलो करना है. और देखिये क्या नायाब चीज़ सामने आई है.

मियाँ की मल्हार में निबध्द ये बंदिश उस्ताद अकबर अली ख़ाँ ने अपने मरहूम वालिद और गुरू बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ से सीखी थी और ख़ुद इस तराने में आशा जी के साथ सरोद से जुगलबंदी की है. ये एलबम अदभुत था लेकिन पता नही ज़्यादा क्यों नहीं सुना गया. सरोद की तरबों पर तूफ़ान मचाते ख़ाँ साहब और अपने कोकिल-कंठ से अप्रतिम स्वराघात करतीं आशा भोंसले ...ज़रा ग़ौर फ़रमाएँ क्या तिलिस्म गढ़ दिया है इन महान कलाकारों ने.

मेरे शहर में मानसून विलम्ब से चल रहा है ; क्या मियाँ की मल्हार सुनाने के लिये ?


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Monday, September 8, 2008

ढलती रात में सुनिये आशाजी का ये अनसुना सा गीत.

सात्विक धुनों का जादू जगाने वाले संगीतकार रवीन्द्र जैन की बंदिश है यह.
राग मारवा के स्वर और आशा भोंसले की आवाज़.एक लम्हा लगता है सुनने वाले को जैसे संबोधित कर आशाजी कह रहीं है...साथी रे भूल न जाना मेरा प्यार..(फ़िल्म:कोतवाल साब)
चित्रपट संगीत के दायरे में मारवा का इस्तेमाल और उस पर आत्मा को चीरता सा आशा-स्वराघात.

आशाजी के गायन में तड़प और मुहब्बत की चाशनी झरी जाती है. गीत सुनेंगे तो सीने पर हाथ धरे रह जाएगा.शायद इस कम्पोज़िशन को सुन कर पूरी रात जागते रहें आप. क्योंकि जिस तरह से सारी पंक्तियाँ गाने के बाद मुखड़े पर आशाजी आतीं है तब लगता है पूरा जगत एक वीराना है और विकल करता यह स्वर जैसे हमसे ही एक वादा ले रहा है. शब्द सुनें और स्वर का मेल देखें तो लगता है ठंडक भी है और आग भी.

यूँ भी लगता है कि किसी हाई-वे पर आप बस में बैठ चुके हैं और सरसराती एक आवाज़ को आप सुन नहीं देख रहे हैं जो आपसे कह रही है साथी रे...भूल न जाना मेरा प्यार.
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Tuesday, September 2, 2008

राग दुर्गा : सखी मोरी रूमझुम : पं.नारायणराव व्यास.

अतीत गलियारों की सैर हमेशा सुखदायी होती है वह भी तब जब आप गुज़रे ज़माने के ऐसे अज़ीम फ़नकार से रूबरू हों जिन्होंने अपनी सुमधुर गायकी से पूरे देश को लगभग सम्मोहित ही कर लिया था. बात कर रहा हूँ पं.नारायणराव व्यास की. ग्वालियर घराने के ऐसे गुणी-गायक जिनके स्वर का माधुर्य आज भी कानों में घुल जाये तो लगता है कि अब और क्या सुनना है. टीप में सुरभित उनका स्वर जब तीनों सप्तकों में घूमता था तो लगता था बस यही तो है वह गायकी जिसे हम सुनना चाहते हैं. पंडितजी और पं.विनायकराव पटवर्धन की जुगलबंदी की वह रचना तो संगीतप्रेमियों की अमानत है जो इन दोनो महान गायकों ने राग मालगुंजी में गाई है , बंदिश के बोल हैं ब्रज में चरावत गैया. वह भी किसी दिन आपको सुरपेटी पर सुनवा देंगे.
अभी तो आनंद लीजिये राग दुर्गा में निबध्द छोटे ख़याल का जिसे स्वर दिया है
पं.नारायणराव व्यास ने.

सुनकर ज़रूर बताइये कि राग दुर्गा आपके दिल में कहाँ तक उतरा.

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Saturday, August 30, 2008

आशा भोंसले की आवाज़ में ये क्लासिकल रंग की बंदिश

भारतीय संगीत की पटरानी आशा भोंसले की आवाज़ की वर्सेटलिटि का जवाब नहीं.
उन्हें सिर्फ़ हिन्दी चित्रपट गीतों की सीमा में बांधना मूखर्ता ही होगी. गुजराती,मराठी,पंजाबी,राजस्थानी और अंग्रेज़ी तक में अपनी आवाज़ का जलवा बिखेर चुकीं आशाजी ने गायकी के क्षेत्र में एक लम्बी यात्रा तय की है. परिवार में ही संगीत का विराट स्वर मौजूद हो तब अपनी पहचान विकसित करना एक चुनौती होता है. कहना बेहतर होगा कि लताजी यदि संगीत की आत्मा हैं तो आशाजी उसकी देह हैं.
वेदना,मस्ती,उल्लास और अधात्म में पगे गीत जिस तरह से आशाजी के कंठ से निकले हैं वह विस्मयकारी है.
आज सुरपेटी पर प्रकाशित रचना मराठी नाटक मानपमान की ख्यात बंदिश है.इसे कम्पोज़ किया है वरिष्ठ संगीत-महर्षि पं.गोविंदराम टेम्बे ने.जब आप ये रचना सुन रहे होंगे तो महसूस करेंगे कि आशा भोंसले के रूप में हमारे चित्रपट संगीत ने एक महान स्वर पाया किंतु शास्त्रीय संगीत ने इसी कारण न जाने क्या अनमोल खोया.चलिये हिसाब-किताब बाद में करते रहेंगे अभी तो सुनिये आशाजी की तानें,मुरकिया और हरकतें कैसी बेजोड़ बन पड़ीं हैं.

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Wednesday, August 27, 2008

गायक मुकेश के गुजराती श्रोताओं के लिये ये सुरीली भेंट

इंटरनेट ने चीज़ों को आसान बनाया है और ब्लॉग लेखन ने ये शऊर दिया है कि चीज़ों को दूसरों के साथ बाँटों....क्या क्या छाती पर बांध कर ले जाओगे.यूनुस भाई और सागर भाई के साथ मिलकर श्रोता-बिरादरी के लिये जब मुकेश स्मृति-दिवस(27 अगस्त) पर काम चल रहा था तो मैं भी मुकेशजी के कुछ ऐसे गीत ढ़ूँढ् रहा था जो कम सुनने मे आते हैं.अनायास एक ऐसा संचयन नज़र आया जिसमें मुकेशजी के गाये गुजराती नग़में मौजूद हैं.मन ने कहा कि ब्लॉग-बिरादरी में ऐसे कई गुजराती-भाषी या मेरे जैसे गुजराती समझने वाले मित्र हैं जो मुकेशजी के इन गीतों को सुनकर आनंदित होंगे.हाँ यह भी बताता दूँ कि मुकेशजी की जीवन-सखी सरलबेन(बची बेन) गुजराती परिवार थीं सो विवाह के बाद परिवार में वैसा ही वातावरण लाज़मी है.

मुकेश-बरसी पर आज रेडियो,अख़बार और इंटरनेट पर कई आयोजन होंगे और संस्मरण लिखे जाएंगे लेकिन अपनी ओर से ये बात ज़रूर कहना चाहूँगा कि इस गायक को सिर्फ़ सुनकर कोई भी अंदाज़ लगा सकता है कि मुकेश भद्रता के पर्याय थे.मुझे पूरा विश्वास है यह कहते हुए कि संगीतकार अपनी धुन बनाते वक़्त ही तय कर लेते होंगे कि इस गीत में मुकेश को गवाना है. जो भी गीत मुकेशजी ने गाए हैं उनमें एक विशिष्ट सचाई और खरापन सुनाई देता है.

आज सुरपेटी पर जारी इस मुकेश गुजराती संचयन में ज़्यादातर गीतों में जीवन का मर्म,सत्य,नसीहते,नश्वरता,आध्यात्म और रूहानी तबियत का गहरा अहसास है.कहीं कहीं लगता है जैसे ये गीत कबीरी छाप वाले गीत हैं . आप इन्हें गुजराती भाव-गीत भी कह सकते हैं. हो सकता है आप गुजराती बहुत नहीं समझते हों लेकिन आज मुकेशजी की पुण्य-तिथि के दिन इस महान गायक की गान-परम्परा का एक अलग रूप अनुभव तो कर ही सकते हैं.मुकेशजी को सारे संगीत-प्रेमियों की श्रध्दांजलि.

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Sunday, August 24, 2008

एक विलक्षण प्रस्तुति : मैं नहीं माखन खायो !


आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का दिन पूजा-पाठ,अनुष्ठान का तो है ही लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से इस दिन को भारतीय संगीत दिवस मानना पसंद करता हूँ. श्रीकृष्ण का संगीतप्रेम जग-जाहिर है. उनके हाथों में सजी बाँसुरी इसकी तसदीक करती है. एम.एस.शुभलक्ष्मी,जुथिका रॉय,लता मंगेशकर,अनूप जलोटा और हरिओम शरण की वाणी से जब तब श्रीकृष्ण लीला के गान गूँजे हैं.आज जो रचना सुरपेटी पर लगा रहा हूँ उसे मैंने पं.मदनमोहन मालवीय की पौत्री और पं.ओंकारनाथ ठाकुर की सुशिष्या श्रीमती विभा शर्मा के निवास पर इन्दौर में सुना था. वे मेरी मानस माँ थी. उनसे ज़िन्दगी में कई चीज़ों के प्रति अनुराग जागा , सलाहियतें और नसीहतें मिलीं. आज विभाजी दुनिया में नहीं हैं लेकिन जब भी ये रचना सुनता हूँ विभाजी का स्मरण हो आता है.

संगीतमार्तण्ड पं.ओंकारनाथ ठाकुर ने भारतीय शास्त्रीय संगीत को जो ऊँचाइयाँ दी उसके बारे में विस्तार से फ़िर कभी.आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन पूज्य पंण्डित जी के स्वर में निबद्ध ये रचना सुनते हैं. इसमें पीछे पंडित रामनारायणजी की सारंगी,एन.राजम की वॉयलिन और पं.बलवंतराय भट्ट का स्वर भी सुनाई देता है.यहाँ ये बता दूँ कि मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो आपने अनूप जलोटा के स्वर में भी सुना होगा लेकिन यहाँ पं.ठाकुर के स्वर-वैभव का एक अनूठापन आपको एक रूहानी तिलिस्म में ले लेता है. वे वाग्गेयकार थे.साक्षात सरस्वती के पुत्र . महान अभिनेता पृथ्वीराज कपूर नें एक बार बनारस विश्वविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था पण्डितजी आपके सामने मेरी अदाकारी बहुत तुच्छ है; आप महान रंगकर्मी हैं.
मुझे उम्मीद नहीं थी कि ये रचना कहीं मिल जाएगी लेकिन शायद आप संगीतप्रेमियों के लिये मुझे निमित्त बनाना ही था भगवान श्रीकृष्ण को ...सुनिये और मेरा जय श्रीकृष्ण स्वीकारिये.
(एक ख़ास गुज़ारिश संगीतप्रेमियों से:यहाँ प्रकाशित की जा रही रचना का समय है २० मिनट . इसमें आज के ज़माने का गिमिक और ग्लैमर न होकर शास्त्रीय संगीत का ख़ालिस वैभव समाहित है. जो लोग संगीत में तात्कालिक रस ढूँढते हैं वे इसे सुनकर निराश ही होंगे ; सो सनद रहे.)


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Wednesday, August 20, 2008

आज बरसी –शहनाई ख़ाँ साहब की

"अभी सच्चा सुर लगा ही कहॉं है ? उसी की तलाश में तो हम इतने बरस बजाते रहे। जब सच्चा सुर लगा गया तो समझिए हम पहुँच गए विश्वनाथ की शरण में।' ताज़िंदगी सुरों में रमने वाले भारतरत्न
उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ॉं ने ये बात अभी कुछ दिन पहले बनारस में एक साक्षात्कार में कही थी और २१ अगस्त की अलसुबह "शहनाई' वाकई विश्वनाथ शरणलीन हो गई। वे फ़कीरी तबीयत के ऐसे शहनाईनवाज़ थे, जिन्होंने जीवनभर संगीत और सिर्फ संगीत से अपनी कला का जादू पूरे संसार में फैलाया। उनकी सरलता और सादगी का ठाठ उनके बाजे में भी अभिव्यक्त होता रहा। हवाई यात्रा से हमेशा दूर रहने वाले बिस्मिल्लाह ख़ॉं साहब ने चाहे विदेशी धरती पर कम बजाया हो, लेकिन उनकी शहनाई के स्वर तो उनके जीते-जी ही वैश्विक संगीत का पर्याय बन चुके थे।

मंदिरों, राजे-जरवाड़ों के मुख्य द्वारों और शादी-ब्याह के अवसर पर बजने वाले लोकवाद्य शहनाई को बिस्मिल्लाह ख़ॉं ने अपने मामू उस्ताद मरहूम अलीबख़्श के निर्देश पर शास्त्रीय संगीत का वाद्य बनाने में जो अथक परिश्रम किया उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। उस्ताद विलायत ख़ॉं के सितार और पं. वी.जी. जोग के वायलिन के साथ ख़ॉं साहब की शहनाई जुगलबंदी के एल.पी. रिकॉडर्स ने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़े। इन्हीं एलबम्स के बाद जुगलबंदियों का दौर चला। संगीत-सुर और नमाज़ इन तीन बातों के अलावा बिस्मिल्लाह ख़ॉं के लिए सारे इनाम-इक़राम, सम्मान बेमानी थे। उन्होंने एकाधिक बार कहा कि सिर्फ संगीत ही है जो इस देश की विरासत और तहज़ीब को एकाकार करने की ताक़त रखता है। बरसों पहले कुछ कट्टरपंथियों ने उनके शहनाई वादन पर आपत्ति ली। ख़ॉं साहब ने आँखें बद कीं और उस पर "अल्लाह हू' बजाते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने मौलवियों से पूछा - मैं अल्लाह को पुकार रहा हूँ, मैं उसकी खोज कर रहा हूँ। क्या मेरी ये जिज्ञासा "हराम' है। निश्चित ही सब बेज़ुबान हो गए।सादे पहनावे में रहने वाले ख़ॉं साहब के बाजे में पहले पहल वह प्रेशर नहीं आता था। उन्हें अपने उस्ताद से हिदायत मिली, वर्जिश किए बिना सॉंस के इस बाजे से प्रभाव नहीं पैदा किया जा सकेगा और उस्ताद हिदायत को नसीहत मानकर मुँह-अँधेरे गंगा घाट पहुँच जाते और व्यायाम से अपने शरीर को गठीला बनाते। यही वजह है वे बरसों पूरे देश में घूमते रहे और शहनाई का तिलिस्म फैलाते रहे।

बजरी, चैती, झूला जैसी लोकधुनों में बाजे को ख़ॉं साहब ने अपनी तपस्या और रियाज़ से ख़ूब सँवारा और क्लासिकल मौसिक़ी में शहनाई को सम्मानजनक स्थान दिलाया। इस बात को रेखांकित करना आवश्यक है कि जिस ज़माने में बालक बिस्मिल्लाह ने शहनाई की तालीम लेना शुरू की, तब गाने बजाने के काम को इ़ज़्जत से नहीं देखा जाता था। ख़ॉं साहब की मॉं शहनाई वादक के रूप में अपने बच्चे को कदापि नहीं देखना चाहती थीं। वे अपने पति से कहती थी क्यों आप इस बच्चे को इस हल्के काम में झोक रहे हैं। उल्लेखनीय है कि शहनाई वादकों को तब ब्याह-शादी में बुलवाया जाता था और बुलाने वाले घर के आँगन या ओटले के आगे इन कलाकारों को आने नहीं देते थे। लेकिन ख़ॉं साहब के पिता और मामू अडिग थे कि इस बच्चे को तो शहनाई वादक बनाना ही है और उसके बाद की बातें अब इतिहास हैं।

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ॉं के जाने से एक पूरे संगीतमय युग का पटाक्षेप हो गया । मानो संगीत के सात "सुरों' में एक सुर कम हो गया। दुनिया अपनी फितरत में मशगूल है लेकिन लग रहा है हमारी रिवायत का एक दमकता मोती आज हमसे दूर चला गया है। उनके जाने के बावजूद ख़ॉं साहब के हज़ारों कैसेट्स-सीडी हमारे कानों में बहार, जैजैवंती और भैरवी के स्वरों का आभामंडल रचते रहेंगे, लेकिन शहाना ठहाके और बेफिक्र तबीयत वाले उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ॉं तो हमारे बीच नहीं होंगे। उन्हें तलाशने हमें महफ़िलों में नहीं बनारस के उन घाटों पर जाना होगा, शायद वहीं कहीं बज रही हो वह सुरीली मंगल-प्रभाती।

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Tuesday, August 19, 2008

पं.कुमार गंधर्व - मंगल दिन आज ; बना घर आयो

मालवा के लोक संगीत में शास्त्रीय रागों की असीम संभावना तलाशने वाले
कुमारजी ने एक तरह से मालवा को वैश्विक पहचान दी . प्रस्तुत रचना राग
मालावति में निबध्द है जिसमें कुमारजी ने मालवी बंदिश को पिरो दिया है.
कलाकार हमेशा अपने कलाकर्म से संगीतप्रेमियों के दिलो-दिमाग़ में अमर रहता है
यह बात कुमारजी को सुनकर सहज ही महसूस किया जा सकता है. छोटी छोटी लेकिन सुघड़ तानों से कुमारजी कैसे एक सुरीला वितान रचते है आइये सुनते हैं.



बदिश का भाव यह है कि बना यानी दूल्हा घर आया है सो आज का दिन मंगलमय हो गया है. बनरा(बन्ना यानी दूल्हा)सहेलियाँ देख आईं है और मैं बावरी हो कर ये गीत गाने लगी हूँ..मंगल दिन आज बना घर आयो.

Sunday, August 17, 2008

बाँसुरी के जादूगर से सुनिये - जादूगर सैया छोड़ो मोरी बैंया

बलजिंदर सिंह मेरे शहर के जाने माने बाँसुरी वादक हैं.हम प्यार से उन्हें बल्लू भाई कहते हैं.कंस्ट्रक्शन का लम्बा चौड़ा कारोबार है बल्लू भाई का लेकिन दिल रमता है संगीत में.बाँसुरी बजाते हैं और क्या ख़ूब बजाते हैं.किसी भी आयोजनों में कितनी चमक दमक हो लेकिन यदि वहाँ बल्लू भाई की बाँसुरी की आवाज़ सुनाई दे रही हो तो समझ लीजिये समाँ कुछ और ही हो जाता है. अब तो बल्लू भाई सिर्फ़ देश ही नहीं विदेशों में जाकर अपनी प्रस्तुतियाँ दे रहे हैं. बल्लू भाई को भी आपकी-मेरी तरह गुज़रे ज़माने का संगीत ही भला लगता है. अब चूँकि वे एक हुनरमंद बाँसुरी वादक हो गए हैं तो किसी गीत को बजाते हुए अपनी कल्पनाशीलता का रंग भी भर देते हैं जो कानों को बड़ा मीठा लगता है. बहुत दिनों से इच्छा थी कि बल्लू भाई से आपको मिलवाऊं .फ़िल्म नागिन(1954) का गीत सुनवा रहा हूँ.गुज़रे ज़माने के संगीत की ताक़त ये है कि एक समय के बाद ये फ़िल्मी गीत से लोकगीत बन जाते हैं.
गीत शैलेंद्र जी ने सिरजा था और संगीत का जादू रचा था हेमंतकुमार ने.
जानता हूँ कि बल्लू भाई की बाँसुरी सुनते सुनते आपका जी चाहेगा कि इस
गीत गुनगुनाया जाए...तो हुज़ूर ये रहे गीत के बोल.....

जादूगर सैंया छोड़ो मोरी बैंया
हो गई आधी रात,अब घर जाने दो

जाने दे ओ रसिया,मोरे मन बसिया,गाँव मेरा बड़ी दूर है
तेरी नगरिया रूक न सकूँ मैं,प्यार मेरा मजबूर है
ज़ंजीर पड़ी मेरे हाथ , अब घर जाने दो

झुकी झुकी अँखियाँ,देखेंगी सारी सखियाँ,ताना देंगी तेरे नाम का
ऐसे में मत रोक बेदर्दी,ले वचन कल शाम का
कल होंगे फ़िर हम साथ , अब घर जाने दो

रविवार को ये सुरीला उपहार आपको ज़रूर सुहाएगा,ऐसा विश्वास है मुझे.

Saturday, August 16, 2008

छोटी सी गुड़िया की कहानी और उस्ताद अली अकबर ख़ाँ का सरोद.

फ़िल्मी संगीतकारों ने कहीं कहीं तो करिश्मा ही कर दिया है.
1955 में बनीं फ़िल्म सीमा का ये गीत ले लीजिये ...सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी. गीतकार हैं शैलेंद्र और संगीतकार शंकर-जयकिशन. भव्य आर्केस्ट्राइज़ेशन के नामचीन संगीतकार. सिचुएशन के मुताबिक एस.जे. ने हमेशा कुछ इतना बेजोड़ दिया है कि उनका काम सुनिये तो कुछ और पसंद नहीं आता.राग भैरवी(मूलत:प्रात:कालीन राग) को सदा सुहागन राग इसलिये कहा गया है कि आप इसे कभी भी गाइये,लेकिन इतना ख़याल रहे कि इसके बाद आप कुछ गाने का जोखिम नहीं ले सकते. भैरवी हो गई यानी मामला खल्लास.एस.जे. ने जिस तरह से अपने बैंचमार्क (एकाधिक वाद्यों वाला आर्केस्ट्रा) का विचार यहाँ ख़ारिज किया है वह चौंकाता है लेकिन वजह यह कि हाथ में सरोद लेकर बैठे हैं उस्ताद अली अकबर ख़ाँ साहब. सरोद के तारों को कुछ ऐसा छेड़ते हुए कि अच्छा सा अच्छा पत्थर दिला इंसान इन सुरों को सुन कर पिघल जाए.गीत हसरत जयपुरी का लिखा हुआ है और शब्दों की लाजवाब कारीगरी का का नमूना है. सरोद की तरबों पर छेड़े भैरवी के स्वर कितना कुछ कहते हैं.

लता मंगेशकर यहाँ अपने करिश्माई गायन से एक और सोपान रच गईं हैं.सरोद के प्री-ल्यूड पर वे जिस तरह से आमद लेतीं है वह विलक्षण है.सुनो शब्द में जिस तरह से साँस समाहित हुई है वह सुनने वाले को पूरा गीत सुनने को विवश कर देती है. सरोद पर लता भारी है या लता पर सरोद यह निर्णय मैं आप पर ही छोड़ता हूँ...मेरी राय जानना चाहेंगे तो मैं कहूँगा सरोद अतीत की ज़मीन बना रहा है और उस पर लता का सुरीला स्वर आपकी उंगली पकड़ कर कहानी सुनाने का काम कर रहा है.

पुराने ज़माने के ये गीत हमें जिलाए रखते हैं.याद दिलाते हैं कि हमारी विरासत क्या है.हम किस तहज़ीब के नुमाइंदे हैं.अपनी उम्र को घटाने के लिये ऐसे ही गीत समय के पहिये को उल्टा फिरा देते हैं....आप सहमत हैं न मुझसे.

Friday, August 15, 2008

अब डरने की कोई बात नहीं ; अंग्रेज़ी छोरा चला गया एक दुर्लभ गीत

बहुत दिनों से मन था कि एक ब्लॉग सिर्फ़ संगीत को लेकर बना लिया जाए.
मन ने आज कहा कि पन्द्रह अगस्त से बेहतर शुभ दिन और क्या हो सकता है इस नेक काम के लिये.तो लीजिये साहब बिसमिल्लाह करता हूँ.उम्मीद है आपकी मुहब्बते और मशवरे मिलते रहेंगे.मुलाहिज़ा फ़रमाएँ सुर-पेटी की पहली पेशकश.


चाहे आज़ादी मिले हमें साठ से ज़्यादा बरस का समय हो गया लेकिन जिस तरह से अंग्रेज़ों ने हमें ग़ुलाम बना कर रखा था वह हमारे इस महान देश का दर्दनाक अध्याय है.जब देश को आज़ादी मिली तो पूरे देश ने इसका जश्न मनाया. फ़िल्म संगीत में भी कुछ ऐसी बेजोड़ रचनाएँ रचीं गईं जिन्होंने अवाम में स्वर को अभिव्यक्त किया. फ़िल्म संगीत हमेशा जनरूचि को ध्यान में रख कर रचा जाता रहा है इसीलिये वह संगीत की दीगर विधाओं से ज़्यादा लोकप्रिय है.राष्ट्रीयता को लेकर अनेक गीत रचे गए हैं लेकिन आज जो गीत आप सुनने जा रहे हैं वह इस लिहाज़ से विशिष्ट है कि इस गीत के बाद लता मंगेशकर का नाम सुर्ख़ियों में आ गया था. ध्वनि-मुद्रिकाओं के संकलनकर्ता सुमन चौरसिया बताते हैं कि संगीतकार ग़ुलाम हैदर द्वारा कम्पोज़ किये गए फ़िल्म मजबूर (1948) के इस गीत को मुकेश और लता ने गाया है. बहुत आसान शब्द हैं जो सुनने वाले को आनंदित कर देते हैं.भारत के लोकजीवन में गाए बजाने जाने वाले गीत की रंगत आपको इस रचना में सुनाई देगी. गीतकार हैं नज़ीम पानीपती.एक ख़ास बात ; जब इस गीत को सुनें तो लताजी की आवाज़ की ताज़गी पर ज़रूर ग़ौर करियेगा.मुकेश का स्वर भी आपको अधिक मीठा सुनाई देगा.
एक गुज़ारिश: जब इस गीत सुनें तो हमारे अमर सेनानियों को भी याद करें;क्योंकि आज यदि आप हम आज़ाद हवा में सांस ले पा रहे हैं तो ये उन्ही सपूतों की क़ुरबानियों से संभव हो पाया है.क्या ही अच्छा हो कि आप हम सब देश-प्रेम के जज़्बे को सिर्फ़ पंद्रह अगस्त से कुछ और अधिक विस्तृत कर पाएं.वंदेमातरम.